मनिशंकर अय्यर ने कहा, 'चीन से समझौता कर सकते थे, टाल सकते थे 1962 का युद्ध'

मनिशंकर अय्यर ने कहा, 'चीन से समझौता कर सकते थे, टाल सकते थे 1962 का युद्ध' मई, 29 2024

मनिशंकर अय्यर के विवादास्पद बयान

वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मनिशंकर अय्यर ने एक बार फिर से विवाद को जन्म दे दिया है। इस बार बात है 1962 के भारत-चीन युद्ध की, जिसे उन्होंने 'कथित चीनी आक्रमण' के रूप में संदर्भित किया। उनके इस बयान ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। अय्यर ने यह टिप्पणी 'नेहरू के पहले भर्ती' पुस्तक के विमोचन के मौके पर की। इस किताब को लेखन किया है पत्रकार कल्लोल भट्टाचार्य ने।

1962 के युद्ध का संदर्भ

अय्यर के मुताबिक, 1962 में हुए चीन-भारत युद्ध से भारत को बचाया जा सकता था अगर उस समय के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू चाउ एनलाइ के 1960 के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते। चाउ के प्रस्ताव के अनुसार, चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश पर भारतीय प्रशासन को मान्यता देने के बदले में अक्साई चिन पर अपने कब्जे को मान्यता देने की मांग कर रहा था।

हालांकि, यह प्रस्ताव उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ठुकरा दिया था, जिसे अय्यर ने एक 'चूक' के रूप में देखा। अय्यर का मानना है कि अगर यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया होता, तो शायद 1962 का युद्ध नहीं होता और दोनों देशों के मध्य संबंध बेहतर होते।

कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया

वरिष्ठ कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने अय्यर के इस बयान से पार्टी की दूरी स्पष्ट कर दी है। उन्होंने कहा कि अय्यर ने 'कथित चीनी आक्रमण' शब्द का उपयोग करने के लिए माफी मांगी है। रमेश ने यह भी कहा कि यह अय्यर के व्यक्तिगत विचार हैं और कांग्रेस पार्टी उनके विचारों का समर्थन नहीं करती है।

वर्तमान स्थिति

यह विवाद ऐसे समय में सामने आया है जब भारत और चीन दोनों ही सेनाओं के बीच लद्दाख में तनाव जारी है। मई 2020 में दोनों देशों की सेनाओं के बीच हुई मुठभेड़ में 20 भारतीय सैनिकों की जान चली गई थी, जिसके बाद से दोनों देशों के संबंधों में तल्खी बढ़ गई है।

अय्यर के बयान से यहां भी राजनीतिक माहौल गरमा गया है। भाजपा ने इसे कांग्रेस की चीन के प्रति नरम नीति का उदाहरण बताया है, जबकि कांग्रेस ने इसे अय्यर के व्यक्तिगत विचार के रूप में खारिज कर दिया है।

इतिहास की दृष्टि से

इतिहास की दृष्टि से

चाउ एनलाइ के 1960 के प्रस्ताव को लेकर कई लेखक और इतिहासकारों ने यह तर्क दिया है कि यह प्रस्ताव दोनों देशों के बीच एक समझौते का जरिया बन सकता था। हालांकि, नेहरू प्रशासन ने इसे संप्रभुता के मुद्दे के तौर पर देखा और इसे अस्वीकार कर दिया।

नेहरू का मानना था कि ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार करने से भारत की संप्रभुता और सुरक्षा को खतरा हो सकता है। लेकिन अय्यर के विचार में, यह एक चूक थी और इस प्रस्ताव को स्वीकारने से भारत को एक बड़ा युद्ध टालने का अवसर मिल सकता था।

क्या कर सकते थे

अय्यर ने अपने बयान में यह भी कहा कि भारत 1962 में अपनी फॉरवर्ड नीति को पर्याप्त सैन्य शक्ति के साथ समर्थन कर सकता था। अगर भारत ने अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाए होते तो शायद स्थिति अलग हो सकती थी।

यह विचार कई पुस्तकें और लेखों में भी प्रस्तुत किया गया है। इसमें यह तर्क दिया गया है कि भारत उस समय अपनी सीमाओं की रक्षा करने के लिए पर्याप्त सैन्य तैयारी नहीं कर पाया था, जिस कारण से उसे इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा।

राजनीतिक प्रभाव

राजनीतिक प्रभाव

अय्यर के इस विवादास्पद बयान का राजनीतिक प्रभाव तत्काल देखा जा सकता है। भाजपा ने इसे कांग्रेस की चीन के प्रति नरम नीति और उसकी नीतिगत विफलता का एक और उदाहरण बताया है।

दूसरी ओर, कांग्रेस ने अय्यर के बयान से सीधे तौर पर दूरी बना ली है और यह स्पष्ट किया है कि यह उनकी व्यक्तिगत राय है।

आगे की राह

यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विवाद का राजनीतिक दलों के बीच संवाद और संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ता है। एक बात तो स्पष्ट है कि भारत-चीन संबंध एक जटिल और संवेदनशील मामला है और इसे बहुत ही सोच-समझकर संभालना होगा।

अय्यर का बयान एक बार फिर से 1962 के युद्ध और उससे जुड़ी नीतियों पर चर्चा को जन्म दे चुका है। उनके विचारों और टिप्पणियों पर चाहे जो भी राय हो, यह साफ है कि भारतीय राजनीति में इस प्रकार की बयानबाजी हमेशा से ही संवेदनशील रही है और आगे भी रहेगी।